Monday, November 19, 2012

Indian Democracy vs Anna, Kejriwal and .....

देश में परिवर्तन की लहर चल रही है, देश का आमजनमानस खुद को छोड़ बाकि सब कुछ बदलना चाहता है, जो अपने हालात न बदल पा रहा हों वो भी देश को बदलने की कोशिश में है, या यूँ कहिये की हम अपने वर्तमान पर अविश्वास करने लगे हैं और असुरक्षा की भावना का शिकार हो रहे हैं। अविश्वास और असंतोष का आलम ये है की हम ये भी नहीं सोचना चाहते की ये परिवर्तन हमें सकारात्मक दिशा की ओर ले जायेगा या फिर हम अपने वजूद को भी खो देंगे। इस परिवर्तन का हर कोई अपने तरीके से लाभ लेने की जुगत में लगा हुआ है, राजनीतिक दल इसे सत्ता पक्ष के खिलाफ माहौल समझ रहे हैं और अपने पक्ष में वोट बैंक में तब्दील करना चाहते हैं, दूसरी ओर  समाज सेवा के रास्ते कुछ लोग अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए मुख्यधारा में शामिल होकर लोगों को गुमराह करने की कोशिश कर रहे हैं।
अन्ना और केजरीवाल इसका बड़ा उदाहरण हैं, ये जनमत पर भरोसा नहीं करते, चुनी हुयी सरकार पर भरोसा नहीं करते, लोकतान्त्रिक व्यवस्था पर भरोसा नहीं करते, हमारी न्यायायिक व्यवस्था पर भरोसा नहीं करते, देश में मौजूद जांच एजेंसी पर भरोसा नहीं करते, किसी भी राजनीतिक दल पर भरोसा नहीं करते, उद्योग घरानों पर भरोसा नहीं करते और चाहते हैं देश की एक अरब से भी ज्यादा जनसंख्या इन पर भरोसा करे, उन जनप्रतिनिधियों का मजाक उड़ाते हैं जिन्हें देश के आवाम ने मतदान कर चुना है और खुद को देश का मसीहा बताने की कोशिश करते हैं।
केजरीवाल के पिछले एक वर्ष में कई रूप हमारे सामने आये, जिस राजनीति को दूषित कह कर आमजनमानस के मन में लोकतंत्र के प्रति घ्रणा पैदा कर रहे थे आज उसी राजनीति में प्रवेश कर चुके केजरीवाल की बातों में तानाशाही की स्पष्ट झलक देखी जा सकती है, ये चंद लोगों का संगठन कई हिस्सों में विभक्त हो चुका है और आज भी जो एक दूसरे के साथ होने का दम भरते हैं उनके ख़यालात आपस में भी मेल नहीं खाते। सोचना चाहिए जो लोग एक छोटे से संगठन को संगठित ना रख पायें हों वो इस राष्ट को भला कैसे एकता का पाठ पढ़ाएंगे उँगलियों पर गिने जा सकने वाले ये आन्दोलनकारी समूचे राष्ट की नीति और नियति का फैसला करना चाहते हैं, जिनकी खुद कोई दिशा और दशा नहीं वो भारत को एक नहीं दिशा देने का ख़्वाब जनता को दिखा रहें हैं और जनता है की वशीभूत हुयी जा रही है।
जिस लोकपाल बिल को अन्ना और उनकी टीम सर्वश्रेष्ट बताने की कोशिश कर रहे हैं हकीकत ये है की उस बिल को अन्ना हजारे ने आज तक पढ़ा ही नहीं, ये टीम अन्ना का नही बल्कि प्रशांत भूसन का लोकपाल बिल है, वो बिल जिसकी लड़ाई लड़ते 15 महीने बीते हैं उसमे खुद टीम अन्ना 18 से ज्यादा संसोधन कर चुकी है और आगे ना जाने कितने और संसोधन इसमें किये जायेंगे। वास्तविकता ये है की अन्ना हजारे और केजरीवाल खुद नहीं चाहते की लोकपाल बिल पास हो शायद यही वजह है की सरकार जब इनकी बातों को मान लेती हैं तो ये उस बिल को संसोधित कर नए प्रावधान जोड़ने लगते हैं ताकि सरकार से असहमति बनी रहे और ये जनसाधारण के मन में लोकतंत्र के खिलाफ जहर का रोपण करते रहें, सरकार इनकी जितनी भी मांगों को मान लेती है वो सब महत्वहीन हो जाती हैं और जो मांगे नहीं मानी जाती वही महत्वपूर्ण रहती हैं। अगर हकीकत में ये लोकपाल के पक्षधर होते तो सरकार इसे जिस भी स्वरूप में लाना चाहती थी, लाने देते जहाँ तक रही बात लोकपाल को सशक्त बनाने की तो सविधान संसोधन एक प्रक्रिया है जिसके तहत समय समय पर लोकपाल के अधिकारों की समीक्षा कर उसे कम या ज्यादा किया जा सकता था परन्तु इन्होने अपनी हठधर्मिता को सर्वोपरि माना और देश में लोकपाल कानून लागू नहीं होने दिया।
अन्ना का लोकपाल शक्तिओं का केन्द्रीकरण था अन्ना एक ऐसा सर्वशक्तिशाली लोकपाल देश को देना चाहते थे जो किसी भी नियंत्रण की परिधि में ना हो, जिसका कोई कुछ ना कर सके, जो किसी के प्रति उत्तरदायी ना हो और जिसके चयन में आमजनता की कोई भूमिका ना हो और वो देश का सर्वोच्च शक्तिकेंद्र बन जाये। शायद अन्ना देश को लोकपाल के नाम पर भस्मासुर देना चाहते थे या लोकपाल के नाम पर लोकशाही को तानाशाही में परिवर्तित करना चाहते थे । भारत का इतिहास साक्षी है की जब जब कोई सर्वशक्तिशाली हुआ है उसने अपनी शक्तियों का जमकर दुरूपयोग भी किया है।
देश का आम आदमी भ्रष्टाचार से त्रस्त है पर हम अपनी पीड़ा मिटाने के लिए एक नयी समस्या को भी तो नहीं अपना सकते, हम राजनेताओं से संतुष्ट नहीं हैं पर अपने इस असंतोष के कारण हम लोकतंत्र को भी तो कुर्बान नहीं कर सकते, हम जिस रास्ते को निदान का  रास्ता मान रहे हैं वो हमें एक ऐसे भंवर की ओर ले जायेगा जहाँ से लौट पाना कभी संभव नहीं होगा।
केजरीवाल ने नकारात्मकता की राजनीती शुरू की है ये संपूर्ण राष्ट को एक सुर में चोर बता रहें हैं, टीवी चैनल  पर रोज खुलासे करते हैं पर अपने पास उपलब्ध सबूतों को ना तो किसी जांच एजेंसी को देते हैं और ना ही न्यायालय जाते हैं जो प्रमाण है की केजरीवाल देश की संवैधानिक सरंचना पर भरोसा नहीं करते, केजरीवाल का मकसद भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना या भ्रष्टाचारियों को सजा दिलाना नहीं बल्कि सनसनी फैलाकर सुर्ख़ियों में आना और आम जनता के मन में वर्तमान व्यवस्था के खिलाफ नफरत पैदा करना है।
देश में प्रधानमंत्री का पद राष्ट की गरिमा, अतिविशिष्ठ्ता और सम्मान का प्रतीक होता है पर केजरीवाल अपनी मर्यादाओं को लांघते हुए अब बहोत आगे निकल चुके हैं, बात बात में प्रधानमंत्री पर निराधार आक्षेप लगाते रहते हैं जो केवल इस पद की गरिमा के खिलाफ नहीं बल्कि देश के मतदाता के आत्मसम्मान और निर्णय के भी खिलाफ है।
तय हमें करना है की क्या हम जो कुछ हमारे पास है उसे गढ़कर तैयार करना चाहते हैं या सब कुछ नष्ट कर तमाशबीन बनना चाहते हैं, ये देश किसी अन्ना या किसी केजरीवाल का नहीं बल्कि हम सभी के पूर्वजों का खून यहाँ की मिटटी में शमिल है, ये देश अगर अपनी नागरिकता के नाते हमें कुछ अधिकार देता है तो हमसे कुछ कर्तव्यों की भी अपेक्षा रखता है, जिस तरह से हम अपने अधिकारों के प्रति सजग हैं उसी तरह से हमें अपने कर्तव्यों के प्रति भी संजीदा होना होगा, हम जिसे विकास  का मार्ग समझ रहे हैं वो सिर्फ और सिर्फ विनाश की ओर जाने वाला अंधकारों से सना हुआ रास्ता है, हमें अगर हमारे पूर्वजों ने आजाद भारत विरासत के तौर  पर दिया है तो हमारा प्राथमिक दायित्व है हमारी आने वाली पीढ़ी को इस आजादी को और बेहतर कर सौपना  ना की इसे समाप्त करना।
अन्ना ओर केजरीवाल देश का भविष्य नहीं बल्कि हम ओर आप इस देश का भविष्य हैं और हमें इस जिम्मेदारी को चौकन्ना होकर निभाना होगा वर्ना देश लोकतंत्र से भीडतंत्र और फिर भीडतंत्र से तानाशाहों के हाथ चला जायेगा, हम सिर्फ हाथ मलते रहेंगे और हमारी आने वाली पीढ़ी हमारे इस कृत्य पर शर्मिंदा और शर्मशार होगी।

3 comments:

Atul said...

बहुत बढ़िया अभय जी ...

farhan khan said...

Good post

he indirectly says that men in parliament are not democratically selected but just passed a competition of "lok sewa aayog".

Abhay Tiwari said...

Thanks