Thursday, November 22, 2012

Saare Jahan Se Achha - सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्तान हमारा है .........

जहाँ सुरक्षाकर्मी जब जिसको चाहे कर दे अँधा
और पुलिस के थाने ऐसे जैसे पंडों का धंधा
मुठभेड़ों के नाम पर हत्या होती है निर्दोषों की
चौराहों की मर्यादा है ठोकर में मदहोशों की
जहाँ वर्दियों की बाहों में अबला की चीखें गम है
गाँधी की नैतिकता वाली आँखों के आगे तम है
भारत गाँधी के सपनों का कातिल है हत्यारा है
फिर भी सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्तान हमारा है .........

गर्मी सर्दी बरसातों में निर्धन मर जाएँ तो क्या
आमों की गुठली के आटे की रोटी खाएं तो क्या
आदिवासियों की मजबूरी पेड़ों की पत्ती खाएं
झोपड़ियों में पैदा होकर फुटपाथों पर मर जाएँ
हमने अपनी झोपड़ियों के आँगन भूख सहेजी है
लेकिन अपनी कला नाचने अमरीका में भेजी है
जो भूखों से भीख मांग ले भारत वो बंजारा है
फिर भी सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्तान हमारा है .........

खूनी दंगों के जंगल ही जंगल जिसके आँगन में
लाखों चोटें खाए बैठा है जो अपने दामन में
जिसके पूजा घर शामिल हैं होड़ों में हथियारों की
ईटें भी रोती होंगी मंदिर मस्जिद गुरुद्वारों की
जिसका रोज तिरंगा अपने लहू में सन जाता है
बेटे का पिस्तौल माँ के ही सीने पर तन जाता है
भगत सिंह की धरती पर खालिस्तानी नारा है
फिर भी सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्तान हमारा है .........

कफ़न खसौटे भी हमसे बेशर्मी में हार गए
भारत के मुर्दे भी बिक बिक कर सीमा पार गए
हमने आडम्बर ओढा है धरम करम के सायों का
पर दुनिया वालों के आगे मांस परोसा गायों का
यहाँ पुजारी भी बैठे हैं आँखों में नाख़ून लिए
और ब्रह्मचारी फिरते हैं जेबों में कानून लिए
राम तुम्हारी गंगा मैली गंगा जल भी खारा है
फिर भी सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्तान हमारा है .........

जहाँ अभी भी मानव की बलि रोज चढ़ाई जाती है
पत्थर की मूरत भी लहू से नहलाई जाती है
युवा कली की घूघट उठने से पहले सिल जाती है
इस भारत में दूध नहीं मिलता मदिरा मिल जाती है
जहाँ रोज लाशें बनती हैं दुल्हन बिना दहेजों की
और रोज संख्या बढ़ जाती है आवारा सेजों की
बेबस नोची हुयी कली का चकला यहाँ सहारा है
फिर भी सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्तान हमारा है .........

यहाँ बुद्धि तौली जाती है जाती सने आधारों से
सत्ता की नैया चलती है आरक्षित पतवारों से
कूटनीतियाँ तोड़ रही हैं निर्धन की खुद्दारी को
यहाँ परीक्षा से पहले परिणाम सुरक्षित होता है
मिट्टी के माधव का भी सम्मान सुरक्षित होता है
आरक्षण कानून वतन की प्रतिभा का हत्यारा है
फिर भी सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्तान हमारा है .........

Monday, November 19, 2012

Indian Democracy vs Anna, Kejriwal and .....

देश में परिवर्तन की लहर चल रही है, देश का आमजनमानस खुद को छोड़ बाकि सब कुछ बदलना चाहता है, जो अपने हालात न बदल पा रहा हों वो भी देश को बदलने की कोशिश में है, या यूँ कहिये की हम अपने वर्तमान पर अविश्वास करने लगे हैं और असुरक्षा की भावना का शिकार हो रहे हैं। अविश्वास और असंतोष का आलम ये है की हम ये भी नहीं सोचना चाहते की ये परिवर्तन हमें सकारात्मक दिशा की ओर ले जायेगा या फिर हम अपने वजूद को भी खो देंगे। इस परिवर्तन का हर कोई अपने तरीके से लाभ लेने की जुगत में लगा हुआ है, राजनीतिक दल इसे सत्ता पक्ष के खिलाफ माहौल समझ रहे हैं और अपने पक्ष में वोट बैंक में तब्दील करना चाहते हैं, दूसरी ओर  समाज सेवा के रास्ते कुछ लोग अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए मुख्यधारा में शामिल होकर लोगों को गुमराह करने की कोशिश कर रहे हैं।
अन्ना और केजरीवाल इसका बड़ा उदाहरण हैं, ये जनमत पर भरोसा नहीं करते, चुनी हुयी सरकार पर भरोसा नहीं करते, लोकतान्त्रिक व्यवस्था पर भरोसा नहीं करते, हमारी न्यायायिक व्यवस्था पर भरोसा नहीं करते, देश में मौजूद जांच एजेंसी पर भरोसा नहीं करते, किसी भी राजनीतिक दल पर भरोसा नहीं करते, उद्योग घरानों पर भरोसा नहीं करते और चाहते हैं देश की एक अरब से भी ज्यादा जनसंख्या इन पर भरोसा करे, उन जनप्रतिनिधियों का मजाक उड़ाते हैं जिन्हें देश के आवाम ने मतदान कर चुना है और खुद को देश का मसीहा बताने की कोशिश करते हैं।
केजरीवाल के पिछले एक वर्ष में कई रूप हमारे सामने आये, जिस राजनीति को दूषित कह कर आमजनमानस के मन में लोकतंत्र के प्रति घ्रणा पैदा कर रहे थे आज उसी राजनीति में प्रवेश कर चुके केजरीवाल की बातों में तानाशाही की स्पष्ट झलक देखी जा सकती है, ये चंद लोगों का संगठन कई हिस्सों में विभक्त हो चुका है और आज भी जो एक दूसरे के साथ होने का दम भरते हैं उनके ख़यालात आपस में भी मेल नहीं खाते। सोचना चाहिए जो लोग एक छोटे से संगठन को संगठित ना रख पायें हों वो इस राष्ट को भला कैसे एकता का पाठ पढ़ाएंगे उँगलियों पर गिने जा सकने वाले ये आन्दोलनकारी समूचे राष्ट की नीति और नियति का फैसला करना चाहते हैं, जिनकी खुद कोई दिशा और दशा नहीं वो भारत को एक नहीं दिशा देने का ख़्वाब जनता को दिखा रहें हैं और जनता है की वशीभूत हुयी जा रही है।
जिस लोकपाल बिल को अन्ना और उनकी टीम सर्वश्रेष्ट बताने की कोशिश कर रहे हैं हकीकत ये है की उस बिल को अन्ना हजारे ने आज तक पढ़ा ही नहीं, ये टीम अन्ना का नही बल्कि प्रशांत भूसन का लोकपाल बिल है, वो बिल जिसकी लड़ाई लड़ते 15 महीने बीते हैं उसमे खुद टीम अन्ना 18 से ज्यादा संसोधन कर चुकी है और आगे ना जाने कितने और संसोधन इसमें किये जायेंगे। वास्तविकता ये है की अन्ना हजारे और केजरीवाल खुद नहीं चाहते की लोकपाल बिल पास हो शायद यही वजह है की सरकार जब इनकी बातों को मान लेती हैं तो ये उस बिल को संसोधित कर नए प्रावधान जोड़ने लगते हैं ताकि सरकार से असहमति बनी रहे और ये जनसाधारण के मन में लोकतंत्र के खिलाफ जहर का रोपण करते रहें, सरकार इनकी जितनी भी मांगों को मान लेती है वो सब महत्वहीन हो जाती हैं और जो मांगे नहीं मानी जाती वही महत्वपूर्ण रहती हैं। अगर हकीकत में ये लोकपाल के पक्षधर होते तो सरकार इसे जिस भी स्वरूप में लाना चाहती थी, लाने देते जहाँ तक रही बात लोकपाल को सशक्त बनाने की तो सविधान संसोधन एक प्रक्रिया है जिसके तहत समय समय पर लोकपाल के अधिकारों की समीक्षा कर उसे कम या ज्यादा किया जा सकता था परन्तु इन्होने अपनी हठधर्मिता को सर्वोपरि माना और देश में लोकपाल कानून लागू नहीं होने दिया।
अन्ना का लोकपाल शक्तिओं का केन्द्रीकरण था अन्ना एक ऐसा सर्वशक्तिशाली लोकपाल देश को देना चाहते थे जो किसी भी नियंत्रण की परिधि में ना हो, जिसका कोई कुछ ना कर सके, जो किसी के प्रति उत्तरदायी ना हो और जिसके चयन में आमजनता की कोई भूमिका ना हो और वो देश का सर्वोच्च शक्तिकेंद्र बन जाये। शायद अन्ना देश को लोकपाल के नाम पर भस्मासुर देना चाहते थे या लोकपाल के नाम पर लोकशाही को तानाशाही में परिवर्तित करना चाहते थे । भारत का इतिहास साक्षी है की जब जब कोई सर्वशक्तिशाली हुआ है उसने अपनी शक्तियों का जमकर दुरूपयोग भी किया है।
देश का आम आदमी भ्रष्टाचार से त्रस्त है पर हम अपनी पीड़ा मिटाने के लिए एक नयी समस्या को भी तो नहीं अपना सकते, हम राजनेताओं से संतुष्ट नहीं हैं पर अपने इस असंतोष के कारण हम लोकतंत्र को भी तो कुर्बान नहीं कर सकते, हम जिस रास्ते को निदान का  रास्ता मान रहे हैं वो हमें एक ऐसे भंवर की ओर ले जायेगा जहाँ से लौट पाना कभी संभव नहीं होगा।
केजरीवाल ने नकारात्मकता की राजनीती शुरू की है ये संपूर्ण राष्ट को एक सुर में चोर बता रहें हैं, टीवी चैनल  पर रोज खुलासे करते हैं पर अपने पास उपलब्ध सबूतों को ना तो किसी जांच एजेंसी को देते हैं और ना ही न्यायालय जाते हैं जो प्रमाण है की केजरीवाल देश की संवैधानिक सरंचना पर भरोसा नहीं करते, केजरीवाल का मकसद भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना या भ्रष्टाचारियों को सजा दिलाना नहीं बल्कि सनसनी फैलाकर सुर्ख़ियों में आना और आम जनता के मन में वर्तमान व्यवस्था के खिलाफ नफरत पैदा करना है।
देश में प्रधानमंत्री का पद राष्ट की गरिमा, अतिविशिष्ठ्ता और सम्मान का प्रतीक होता है पर केजरीवाल अपनी मर्यादाओं को लांघते हुए अब बहोत आगे निकल चुके हैं, बात बात में प्रधानमंत्री पर निराधार आक्षेप लगाते रहते हैं जो केवल इस पद की गरिमा के खिलाफ नहीं बल्कि देश के मतदाता के आत्मसम्मान और निर्णय के भी खिलाफ है।
तय हमें करना है की क्या हम जो कुछ हमारे पास है उसे गढ़कर तैयार करना चाहते हैं या सब कुछ नष्ट कर तमाशबीन बनना चाहते हैं, ये देश किसी अन्ना या किसी केजरीवाल का नहीं बल्कि हम सभी के पूर्वजों का खून यहाँ की मिटटी में शमिल है, ये देश अगर अपनी नागरिकता के नाते हमें कुछ अधिकार देता है तो हमसे कुछ कर्तव्यों की भी अपेक्षा रखता है, जिस तरह से हम अपने अधिकारों के प्रति सजग हैं उसी तरह से हमें अपने कर्तव्यों के प्रति भी संजीदा होना होगा, हम जिसे विकास  का मार्ग समझ रहे हैं वो सिर्फ और सिर्फ विनाश की ओर जाने वाला अंधकारों से सना हुआ रास्ता है, हमें अगर हमारे पूर्वजों ने आजाद भारत विरासत के तौर  पर दिया है तो हमारा प्राथमिक दायित्व है हमारी आने वाली पीढ़ी को इस आजादी को और बेहतर कर सौपना  ना की इसे समाप्त करना।
अन्ना ओर केजरीवाल देश का भविष्य नहीं बल्कि हम ओर आप इस देश का भविष्य हैं और हमें इस जिम्मेदारी को चौकन्ना होकर निभाना होगा वर्ना देश लोकतंत्र से भीडतंत्र और फिर भीडतंत्र से तानाशाहों के हाथ चला जायेगा, हम सिर्फ हाथ मलते रहेंगे और हमारी आने वाली पीढ़ी हमारे इस कृत्य पर शर्मिंदा और शर्मशार होगी।

Sunday, October 14, 2012

Arvind Kejarival and Indian Politics

भारतीय राजनीति में अरविन्द केजरीवाल 
 
अरविन्द केजरीवाल वर्तमान में सभी राजनीतिक दलों के लिए एक पहेली बने हुए हैं, कुछ दलों को लगता है की उनके इस आन्दोलन का लाभ उन्हें आने वाले चुनावों में मिलेगा तो कुछ दल अभी तक  भी तय नहीं कर पा रहें हैं की केजरीवाल के मामले में उनकी क्या भूमिका होनी चाहिए, नतीजतन देश के मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग राजनीती के इस भंवर को समझ नहीं पा रहा है और भ्रम और अनिर्णायक अवस्था का शिकार बना हुआ है।
कुछ माह पहले तक जब केजरीवाल, अन्ना और उनकी टीम केवल कांग्रेस का विरोध करती थी तब भाजपा समेत कई राजनीतिक दलों ने इसे भुनाने का प्रयास किया और आगामी चुनावों में कांग्रेस की हार को अपनी जीत के रूप में देखने लगे पर ये ख्वाब ज्यादा दिन तक कोई भी दल नहीं देख पाया क्योंकि केजरीवाल ने धीरे धीरे सभी राजनीतिक दलों को अपना शिकार बनाना शुरू कर दिया और खुद एक नए  राजनीतिक दल के साथ देश के सामने खड़े हो गए।
केजरीवाल देश की नब्ज समझ चुके थे पर अन्ना हजारे और किरण बेदी को केजरीवाल को समझने में वक़्त लगा और जब तक केजरीवाल की अति महत्वाकांक्षा इनके समझ में आती तब तक केजरीवाल अन्ना के आन्दोलन, विचारधारा, और जनसमर्थन को सीढियां बना कर रौंदते हुए आगे निकल गए।
जिन राजनीतिक दलों ने अन्ना और केजरीवाल को कांग्रेस विरोधी समझ कर अपना  समर्थन दिया और उनके साथ खड़ी भीड़ को अपने वोटबैंक में परिवर्तित करने का ख्वाब देखकर जंतर मंतर तक पहुच गए उनके लिए केजरीवाल गले में फंसी एक हड्डी की तरह हो गए जिसे निगलना और उगलना दोनों अब उनके बस में नहीं।
वर्तमान परिद्रश्य में अब  देश के  नागरिक को तय करना होगा की क्या अब हमें ऐसे नेतृत्व की ही आवश्यकता है जो देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्था,  संसदीय परंपरा,  न्यायायिक व्यवस्था जांच एजेंसियों कि निष्ठा, सबको  एक सिरे से अस्वीकार कर दे और एक ऐसे रामराज की परिकल्पना लोगों के ह्रदय में बसाने की कोशिश करे जो भगवान राम स्वयं भी नहीं कर पाए।
अनशन और आन्दोलन देश के नागरिक का अधिकार है पर जिस अधिकार को पाने का हम पुरजोर प्रयास कर रहे हैं उसी देश की नागरिकता हमसे कुछ कर्तव्यों की भी अपेक्षा रखती है मसलन केजरीवाल को  हमेशा याद रखना चाहिए की उनकी अतिमहत्वाकांक्षा कही अन्तर्राष्टीय परिद्रश्य में  भारत की शाख और गरिमा को तो धूमिल नहीं कर रही है,  उन्हें  ध्यान रखना चाहिए की कहीं वो सही मुद्दों को गलत जगह तो नहीं उठाने का प्रयास कर रहे हैं, उन्हें ध्यान रखना चाहिए की जिन जांच एजेंसियों को वो नकारा मान रहे हैं उन्होंने ही इसी सत्तारूढ़ कांग्रेस के कई मंत्रियों को जेल जाने के लिए विवश किया है।
टीम अन्ना सरकार के खिलाफ जिस अविश्वास की  नीव पर अस्तित्व में आई उसी अविश्वास का खुद शिकार हो गयी और कई टुकड़ों में विभक्त टीम अन्ना आज अस्तित्व में नहीं है, जो अन्ना देश को एक सशक्त लोकपाल देने आये थे वो एक अदूरदर्शी केजरीवाल देकर वापस लौट गए,  केजरीवाल जिस संसद को अन्ना को साक्षी बनाकर कोसते आये आज उसी संसद में जाने की बाटजोह रहे हैं,  जो भाजपा कांग्रेस विरोधी अनशन और आंदोलनों की बैसाखी के सहारे संसद में बैठना चाहती थी उस भाजपा को केजरीवाल ने दूध में गिरी मक्खी की तरह निकाल कर अलग कर दिया और खुद संसद की ओर नजरे जमाने लगे।
शायद ये राजनीति नहीं राजनीति का विकृत रूप है जब केजरीवाल संसद को चौराहे पर खडा करते थे तब भाजपा को ना तो संसदीय मर्यादा याद आई और न लोकतान्त्रिक तौर तरीकों से चुनी हुयी सरकार की आबरू की चिंता हुयी जो जनमत और निर्वाचन प्रणाली पर सीधा प्रहार था, किसी भी राजनीतिक दल का ध्यान इस ओर नहीं गया की इससे देश में अस्थिरता और असुरक्षा का वातावरण तैयार हो रहा है, अंतर्राष्टीय  स्तर  पर  भारत  की  शाख  गिर रही है लोग भ्रम का शिकार हो रहे हैं  जब की सभी राजनीतिक दल जानते थे की कोई भी केजरीवाल और अन्ना की आकांक्षाओं और आशाओं पर खरा नहीं उतर सकता क्योंकि उनकी मांग अनंत थी और हठ के स्वरुप में रोज बदलते रहने वाली थीं, ये लोग भीड़ दिखा कर भारत पर राज करना चाहते थे, केजरीवाल और अन्ना के लिए जो कुछ किया जाता वो सब महत्वहीन था जो करना संभव नहीं था बस वही महत्वपूर्ण था।
अब केजरीवाल सत्ता में  आयेंगे जहाँ केवल दो ही लोग होंगे एक केजरीवाल और दूसरा लोकपाल, क्योकि जिस न्यायायिक व्यवस्था, और प्रशासनिक व्यवस्था को ये मानते ही नहीं उसे भला कैसे अस्तित्व में रहने देंगे,हम लोकतंत्र से राजतन्त्र और फिर लोकशाही से तानाशाही तक पहुच जायेंगे फिर सरकारे मतदान से नहीं गुप्तदान से बना करेंगी और जनता जो आज तमाशबीन है कल तमाशा बन कर रह जाएगी।