Monday, April 20, 2009

कमजोर प्रधानमंत्री बनाम लौहपुरुष. . . . . .जनता क्यों कुछ नही जानती?

दो लोग देश के सर्वोच्च सिंहासन पर बैठने की जुगत में इस कदर लगे हुए हैं की एक दूसरे पर अलोकतांत्रिक शब्दों का प्रयोग करना इनकी आदत बन चुकी है , संयम और सादगी तो जैसे किताबों की बात, एक को कठपुतली कहा जाता है तो दूसरे को आतंकवादियों को रिहा करने का इल्जाम दिया जाता है , एक मात्र भाषा से परहेज रखतें हैं तो दूसरे जिन्ना की तारीफ़ में पीछे नही हटते, दोनों ही सच कहते हैं एक दूसरे के बारे में, अब जनता को सोचना चाहिए की किसकी गलतियों को माफ़ कर सत्ता सौपनी है।
बहोत से ख़राब लोगों में एक कम ख़राब को चुनना तो हमारी मजबूरी है ही, और जब हम मजबूर होकर कोई सरकार बनायेंगे तो वो मजबूत होगी की मजबूर सब जानते हैं।
जिस देश में धर्म और मजहब के नाम पर चुनाव जीतने की परम्परा हो वहां अगर हर दल किसी एक जाती, धर्म या मजहब का सरंक्षक बनने की कोशिश करता है या खुले शब्दों में कहें की धर्म की ठेकेदारी करता है तो क्या हर्ज़ है क्योंकि ये आदत तो हमनें ही डाली है न ।
एक हिन्दुओं के ठेकेदार हैं तो दूसरे मुस्लिम लोगों के हितों की रक्षा करने का दम भरते है, एक दलितों के नाम पर सत्ता सुख भोगने की चेष्टा रखते हैं तो कुछ कभी इस दल में कभी उस दल में कभी दल दल में नजर आते हैं, ये है मेरे देश के लोतंत्र की तस्वीर।
जागो अभी भी वक़्त है, इससे पहले की पानी सर के ऊपर से गुजरने लगे, अच्छे लोगों को चुन कर देश की बागडोर सौप दो।

Sunday, April 19, 2009

नेताओं पर जूते और चप्पल फेकना. . . . कितना जायज?

अमेरिकी राष्टपति से शुरुआत हुई और परम्परा आ पहुँची हमारी धरती तक, कभी लगा आक्रोश जाहिर किया तो कभी लगा जैसे किसी ने चाल चल कर इस हरकत को अंजाम दिया, पर यदि ये आक्रोश था तो क्या बस इतनी सी आग लगी थी सीने में की एक जूता फेंका और बुझ गई और अगर अब ठान लिया है की अपनी आवाज़ को बुलंद करेंगे और इस देश की साख को चूना लगाने वाले लोगों को देंगे तो भी क्या इतनी सी सज़ा ?
नेताओं के प्रति गुस्सा, क्रोध और आक्रोश तो लगभग हर किसी के सीने में है पर जूता चला कर आप सिर्फ़ अपनी मानसिक विकृति का परिचय दे सकते हो या फ़िर थोडी सी सुर्खियों में जगह पा सकते हो लेकिन आपका ये मानसिक दिवालियापन न तो आप के लिए अच्छा है और न ही इस देश के लिए ।
अगर वास्तव में है जज्बा कुछ कर दिखाने का तो लोकतान्त्रिक परम्परा को संजीवनी दीजिये और अपने आस पास के लोगों को जाग्रत करिए की ऐसे लोगों का चुनाव में विरोध करें और अच्छे लोगों को चुन कर देश की बागडोर सौपें, आज भी हमारे देश का शहरी आदमी मतदान में हिस्सा नही लेना चाहता और फिर कहता है की ये देश को क्या हो गया, मेरा मानना है की देश को इस मुकाम तक ले जाने में जितना राजनेताओं का हाथ है उससे कही ज्यादा उन लोगों का है जिन्होंने वोट नही डाला और ग़लत आदमी संसद तक पहुँच गया ।
वृद्ध कहते है अब हमें क्या लेना देना हमारी तो कट गई, जवान को मोबाइल से फुर्सत नही और बच्चों को मतदान का अधिकार नही, पचास फीसदी लोगों के मतदान से जो सरकारें बनेगी वो कमजोर भी होंगी और कोई जरुरी नही की जो लोग उसका हिस्सा बने वो उस योग्य भी हों की देश चला सकें।
इसलिए चप्पल और जूते पैरों मे पहने और घर से बहार निकल कर ऐसे लोगों की तलाश करें जो वोट नही डालते, उन्हें मतदान का महत्व बताएं ।